'पत्थलगड़ी' को लेकर व्यापक बहस छिड़ी हुई है। झारखंड
के बीस समाजकर्मियों पर वहां की राज्य सरकार ने देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर रखा है। ऐसे
में जानना ज़रूरी है कि क्या है पत्थलगड़ी? आईये इसे समझते हैं विनोदकुमार के इस आलेख से।
पत्थलगड़ी को लेकर गैर आदिवासी समाज में, तथाकथित भद्र समाज में एक तरह के भ्रम की स्थिति है। कुछ तो यह भ्रम हमारे इस समझ की उपज है कि आदिवासी समाज एक पिछड़ा आदिम समाज है और वे तरह -तरह के अंधविश्वास के शिकार हैं और पत्थलगड़ी उसी अंधविश्वास से भरी कोई परंपरा है। इसमें कुछ नये खौफनाक अर्थ सत्ता ने हाल के दिनों में भरे हैं। वह यह कि पत्थलगड़ी एक राष्ट्रद्रोह है, देश की सार्वभौमिकता के लिए एक चुनौती। इसे मानने वाले देश के संविधान को नहीं मानते। देश के कानून से खुद को उपर समझते हैं। वे हिंस्र हैं और अब तो बलात्कारी भी। यहां तक कि उसके बारे में लिखने वाले या उसका किसी रूप में समर्थन करने वाले राष्ट्रद्रोही हैं।
पिछले
दिनों पत्थलगड़ी के इर्द गिर्द जो राजनीतिक माहौल गरमाया, उसने उत्सुकता जगायी कि हम जाने, पत्थलगड़ी दरअसल है
क्या? इस क्रम में जो जाना और जितना समझ पाया वह उदात्त है।
इस विराट, नश्वर जगत में अपनी पहचान का घनीभूत एहसास। मूलतः
यह मुंडा समाज की सामाजिक व्यवस्था का एक हिस्सा है, लेकिन
अन्य रूपों में अन्य आदिवासी समुदायों में भी इसे देखा जा सकता है। आदिवासी समाज ‘पहाड़’ को श्रद्धा से देखता है। ‘मरांग बुरु’ यानी विशाल पहाड़ उसके देवता हैं। और
पत्थर उसी का एक अंश। परस्पर सौहार्द और विश्वास पर टिका। सारा पोथी, पतरा, नक्शा, खतिहान एक तरफ,
पत्थरगड़ी एक तरफ। विस्तृत भूखंड, खुले आसमान
के नीचे एक अदद पहचान। जिसे कोई चुनौती नहीं दे सकता और देगा तो आदिवासी समाज से
उसे टकराना पड़ेगा।
मुंडा समाज या वृहद आदिवासी समाज में यह धारणा है कि मृत्यु के बाद भी परिजन जीवित रहते हैं, सूक्ष्म और अगोचर रूप में। और अपने बच्चों के सुख-दुख के साक्षी बनते हैं। मृतक के नाम से सासिंदरि - कब्रिस्तान जैसी जगह- में पत्थर गाड़ा जाता है। पत्थर के आस पास बुहार कर पत्थर पर हल्दी लगाई जाती है। उस पर उस आदमी के नाम से लाया गया कपड़ा बिछाया जाता है। अस्थि फूल रख चुक्का पत्थर के नीचे तीर मार कर सरकाया जाता है।
आज.........दिन
आज..........महीना
.....................
गांव में
...................मौजा की सीमा में।
पांच भाई
गांव के
कुटुंब-बंधु
देश के
हम आये हुए
हैं...
हम एकत्र
हुए है...
हमारे बीच
से जो देव बन गया
हमारे बीच
से जो छिन गया
................
के नाम से
उसकी
स्मृति में
तुम्हारे
बताये रास्ते से
तुम्हारे
इंगित मार्ग से
............
गांव में
...........मौजा सीमा में।
..............के घर के आंगन में
..............
की संतान
...............
की संतति
उसे
पुर्खे-पूर्वजों के साथ मिलाने के साथ
हम पत्थर
खड़ा कर रहे हैं
हम एक
चिन्ह स्थापित कर रहे हैं।
हमारे
द्वारा खड़ा किया गया यह पत्थर
हमारे
द्वारा स्थापित यह चिन्ह
युग-युग तक
बना रहे
हमेशा के
लिए स्थिर रहे।
जो कोई इसे
देखे
जो कोई इसे
पहचाने
हां, यह आदमी यही था
यह प्रजा
यहीं की थी।
उस आदमी के
माध्यम से
इस प्रजा
के द्वारा
सारा गांव
प्रकाशित हो
सारा देश
जाना जाये.
गांव के
निर्माण में सहयोगी
देश के गठन
में सहयोगी
खुटकटी
बचाने वाला आदमी
भुईहरी का
रखवाला आदमी...
अब यह
पत्थलगड़ी तो मूलतः मुंडा आदिवासी समाज की परंपरा है। लेकिन यह अन्य आदिवासी समाजों में भी किसी न
किसी रूप में देखा जा सकता है। मृत्यु के बाद आदिवासी मृतक के शरीर को जलाते भी
हैं और मिट्टी भी देते हैं। यानी, मिट्टी के नीचे दबाते भी हैं।
एक ही समाज के भीतर के अलग-अलग गोत्रों में अलग परंपरा हो सकती है। जो जलाते हैं,
वे अस्थि-राख के अवशेष को मिट्टी के बर्तन में रख कर घर के करीब
किसी पेड़-पौधे के नीचे दबा देते हैं और वहां एक पत्थर लगा देते हैं। जो जलाते नहीं,
वे उसे ठीक से लपेट कर गांव के करीब ही चिन्हित एक स्थान विशेष में
मिट्टी के नीचे दबा देते हैं। जाहिर है एक शरीर के भीतर होने की वजह से वहां की
जमीन थोड़ी उंची हो जाती है। फिर उस पर एक चट्टान या पत्थर को सुला दिया जाता है
ताकि जंगली जानवर या कोई अन्य पशु उसे नष्ट न कर सके और सिर की तरफ एक पत्थर गाड़
दिया जाता है जिस पर उस व्यक्ति विशेष का नाम, जन्म और
मृत्यु की तिथि/वर्ष आदि लिख दिया जाता है। लिखा नहीं, उकेर
दिया जाता है। लेकिन यह ससिंदरी या कब्रिस्तान जैसी जगह गांव से बहुत दूर नहीं होती
और न उसकी घेराबंदी ही होती है। वह एक खुली जगह और पेड़-पौधों से घिरी जगह ही होती
है और गांव, घर, खेत, खलिहान का हिस्सा।
इन
सासिंदरियों की चर्चा रांची में आजादी के पहले सेटलमेंट अधिकारी के रूप में रहे जे
रीड ने अपने सर्वे रिपोर्ट में इस रूप में की है कि मुंडा समुदाय पश्चिमोत्तर
क्षेत्र से झारखंड में आये थे जिसका प्रमाण उन सासिंदरियों से मिलता है जिसे वे
इतिहास के उस पथ पर जगह-जगह छोड़ते आये थे। वे बहुधा जमीन पर अपनी दावेदारी के लिए
ससिंदरियों या अपने घर-जमीन पर गाड़े गये पत्थरों का इस्तेमाल प्रमाण के रूप में करते
थे। अंग्रेजों और उनके पोषित जमींदारों ने जब छल-प्रपंच से उनकी जमीन छीननी चाही
तो 25 नवंबर 1880 को ससिंदरी में पत्थरगड़ी के रूप में खड़े
पत्थरों के ढेर उठा कर कोलकाता पहंचे थे और ब्रिटिश हुक्मरानों को सबूत के तौर पर
सौंपा था।
अस्सी के दशक में जंगल पर अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए हो और मुंडा आदिवासियों ने जहां तहां बिखरी ससिंदरियों को खोजा और सरकार को बताने की कोशिश की कि जिन जंगलों को सरकार सुरक्षित क्षेत्र या रिजर्व फारेस्ट के रूप में चिन्हित कर आदिवासी जनता को उससे बेदखल कर रखा है, वह तो उनका घर-गांव था। लेकिन भारत सरकार ने उनके दावे को लगातार होने वाली फायरिंग से दबा दिया। उस आंदोलन के दौरान दो दर्जन पुलिस फायरिंग में कम से कम दो दर्जन लोग मारे गये थे। कोल्हान क्षेत्र में दर्जनों लोगों पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे चले।
उसी दौर
में पत्थरगड़ी का इस्तेमाल शहीदों के नाम को उकेरने में किया गया। रांची के करीब के
दशमफाल देखने आप जब जायेंगे तो प्रवेश द्वार के आंगन में एक विशाल पत्थरगड़ी
देखेंगे जिस पर उस इलाके के संघर्ष में मारे गये शहीदों के नाम दर्ज हैं। 24 दिसंबर 1996 को संसद में पेसा कानून पास हुआ जिसने
आदिवासियों की पारंपरिक व्यवस्था और स्वशासन प्रणाली को कानूनी मान्यता दी। उस दौर
में बीडी शर्मा के नेतृत्व में आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर पत्थलगड़ी की गई।
यानी बड़े-बड़े चट्टानों पर ग्रामसभा की शक्तियों एवं अधिकारों को लिखा गया और
अनुष्ठानपूर्वक गांवों में लगाया गया। पत्थर पर लिखने का काम सामान्यतः रंग रोगन
से नहीं, बल्कि उसे खोद-खोद उकेरा जाता है ताकि वह कभी मिटे
नहीं। कुल मिला कर पत्थलगड़ी का इस्तेमाल पेसा कानून के प्रावधानों को जनता को
बताने के लिए सूचनापट्ट के रूप में किया गया। फर्क यह की सरकारी सूचना पट्ट भाड़े
के मजदूर / ठेकेदार तैयार करते हैं और पत्थलगड़ी ग्रामीण जनता अपने संसाधन और थोड़े
परंपरागत तरीके से अनुष्ठानिक रूप में। उस दौर में पत्थलगड़ी को लेकर कोई विवाद
नहीं था। लेकिन अब एनडीए सरकार उसे एक आपराधिक कृत्य बता रही है।
बहाना यह
बनाया जा रहा है कि पेसा कानून या संविधान की धाराओं के रूप में कुछ ऐसी बातें या
धाराओं का भी उल्लेख पत्थरों पर किया गया जो दरअसल है नहीं। खास कर पत्थलगड़ी के
द्वारा आदिवासी इलाके को बहिरागतों के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित करना, जहां वे ग्रामसभा की अनुमति के बगैर प्रवेश नहीं कर सकते।
कानूनी पेचीदगियों में न जा कर हम कहें तो खूंटी के आदिवासियों व आंदोलनकारियों का कहना यह कि आप अपने घर में अनधिकृत प्रवेश का बोर्ड लगा सकते हैं, शहर के बीच किसी कालोनी विशेष के प्रवेश द्वार पर बैरिकेट लगा सकते हैं, तो आदिवासी अपने घर-गांव के द्वार पर बैरिकेट क्यों नहीं लगा सकता ? बहिरागतों को, पुलिस-प्रशासन को आदिवासियों से किसी तरह का संवेदनात्मक लगाव नहीं। वे कारपोरेट का लठैत, दलाल बन कर ही आदिवासी इलाके में प्रवेश करते हैं, इसलिए उनके लिए पत्थलगड़ी आंदोलन के क्षेत्र में ग्रामसभा से अनुमति लेकर ही प्रवेश की बात कही गई।
अब रही यह
बात कि पत्थलगड़ी आंदोलन के क्षेत्र में सरकारी स्कूलों, अस्पतालों आदि का वहिष्कार किया जा रहा है। यहां तक कि आधार कार्ड को भी
गैर जरूरी बताया जा रहा है। सवाल यह कि सरकारी स्कूल और अस्पताल इस लायक हैं कहां
कि कोई वहां जाये। और आधार कार्ड की अनिवार्यता पर तो देशव्यापी बहस ही चल रही है।
लेकिन पुलिस प्रशासन इन्हीं बातों को बहाना बनाकर पत्थलगड़ी को राष्ट्रद्रोह बता
रहे हैं।
वैसे, यहां एक बात समझने की है कि आंदोलनकारी या उसके कुछ अगुवा गुजरात के कुछ
आदिवासी गांवों के जिस मॉडल से प्रेरित होकर यह सब झारखंड में करना चाहते हैं,
वे यह भूल जाते हैं कि गुजरात या महाराष्ट्र में जमीन के नीचे खनिज
संपदा नहीं और आदिवासी अपने इलाके में स्वायत्त तरीके से रहें तो सरकारों को कोई
खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन झारखंड में जमीन के नीचे प्रचुर
खनिज संपदा है। यहां तो सत्ता निरपेक्ष नहीं रहेगी। घुस कर आपका दमन करेगी और आपका
‘विकास’ करके मानेगी।
दरअसल पेसा, कानून की मूल भावना है कि राजसत्ता आदिवासी इलाकों में किसी तरह की भी
विकास योजना के लिए आदिवासी जनता को भागीदार बनायेगी। यदि जमीन का अधिग्रहण करना
चाहती है तो पहले ग्रामसभा की अनुमति लेगी। लेकिन झारखंड सरकार इस मूल भावना को ही
नकारती है। सैकड़ों एमओयू बगैर ग्रामसभा की अनुमति के किये गये हैं और अब
आंदोलनकारियों के कुछ अतिवादी तरीकों को आधार बनाकर आदिवासी जनता को कुचलने की
नीति पर काम कर रही है।
मसलन, गत वर्ष 24 अगस्त को पुलिस ग्रामसभा द्वारा लगाये
बेरिकोट को तोड़ कर गांव में घुस गई। उग्र ग्रामीणों ने एसपी, डीएसपी सहित 300 जवानों को बंधक बना लिया। वरिष्ठ
पुलिस अधिकारियों को जमीन पर बिठा कर रखा, क्योंकि ग्रामसभा
में तमाम ग्रामीण जमीन पर ही बैठते हैं। लेकिन इस बात को सत्ता ने अपना भीषण अपमान
समझा।
इस बात का
एहसास हमे तब हुआ जब देशद्रोह का मामला उठाने की मांग को लेकर जन संगठनों के सांझा
अभियान का एक प्रतिनिधि मंडल हाल में झारखंड के गृह सचिव से मिला। इस प्रतिनिधि
मंडल में पूर्व के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रामेश्वर उरांव, जो अब कांग्रेस पार्टी के नेता हैं, निरसा के विधायक
अरूप चटर्जी, दयामनी बारला, सहित एक
दर्जन लोग शामिल थे। गृह सचिव ने माना कि देशद्रोह के इस एफआईआर का कोई पुख्ता
आधार नहीं, लेकिन उनका कहना था कि ‘एसपी
को पंद्रह घंटे जमीन पर बिठा कर रखेंगे, तो पुलिस चूंटी भी
नहीं काटेगी?’ यानी, झारखंड के बीस
लोगों को फेसबुक पर लिखने का आधार बनाकर देशद्रोह का अभियुक्त बना देना प्रशासन के
लिए एक ‘चूंटी’ काटना मात्र है।
और खूंटी
की आदिवासी जनता को पुलिस-प्रशासन के उच्चाधिकारियों की अवमानना की किस तरह सबक
सिखाई गई?
पत्थरगड़ी इलाके में एक बलात्कार की घटना होती है। बलात्कार की घटना
उन महिलाओं के साथ होती है जो सरकारी योजनाओं के प्रोपेगंडा के लिए क्षेत्र में
नुक्कड़ नाटक करने गई थी। इस घटना के लिए पीआईएलएफ को जिम्मेदार ठहराया गया और कहा
गया कि इस संगठन के सदस्यों ने पत्थरगड़ी आंदोलन के नेताओं के निर्देश पर ऐसा किया।
फिर पांच अभियुक्तों की गिरफ्तारी के लिए हजारों की संख्या में पुलिस और सुरक्षा
बल के जवानों ने खूंटी के कोचांग गांव में प्रवेश किया। घर-घर की तलाशी ली गई।
गोली चली और एक और बिरसा मुंडा मारा गया। और उस आपाधापी में जब उत्तेजित ग्रामीणों
ने भाजपा सांसद कड़िया मुंडा के चार सुरक्षा गार्डों को अगवा कर लिया, जिन्हें अगले दिन छोड़ भी दिया गया, तो तलाशी अभियान
और पुलिस एवं सुरक्षा बलों की दबिश और बढ़ गई। करीबन 300
अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमे दायर किये गये। ईसाई मिशनरियों से जुड़े लोग इस
आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, इसलिए मदर टरेसा के निर्मल
हृदय संस्थान को बच्चा बेचने का आरोप उसी दौरान लग गया।
अब हालत यह है कि पत्थरगड़ी आंदोलन राष्ट्रद्रोह का आंदोलन बना दिया गया है। उसको चलाने वाले उग्रवादी और बलात्कारी। उसे सपोर्ट करने वाली ईसाई मिशनरियां नवजात शिशुओं को बेचने वाली और पत्थरगड़ी आंदोलन का समर्थन फेसबुक पर करने वाले राष्ट्रद्रोही। कोचांग में स्थाई पुलिस कैंप बन गया। सरकार ऐलान कर रही है कि वह खूंटी का विकास करके ही मानेगी। दरअसल, उसे रांची शहर के बिस्तार के लिए जमीन चाहिए, खूंटी के आस पास निर्वाध उत्खनन का अधिकार। और इसके खिलाफ जो भी खड़ा होगा, उसे कुचल दिया जायेगा।
इस पूरे
प्रकरण में स्थानीय मीडिया की भूमिका शर्मनाक रही है। खूंटी में हुई तमाम हाल
फिलहाल की घटनाओं को उसने सिर्फ प्रशासन के नजरिये से देखा, सुना और नकारात्मक रूप से अखबारों की सुर्खी बनाया। भाजपा ने यह बता दिया
कि मीडिया की मदद से कैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में फासीवादी तरीकों का इस्तेमाल
किया जा सकता है।
वैसे, इस घटना का एक सबक भी है। वह यह कि उग्र तरीकों से आप किसी आंदोलन में
क्षणिक सफलता जरूर प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन 11-12 लाख सैन्य ताकत और आधुनिकतम हथियारों से लैश इस सत्ता से मुकाबला तो
शांतिमय तरीकों से ही हो सकता है। पेसा का इलाका प्रतिबंधित क्षेत्र है, आप वहां नहीं जा सकते ग्रामसभा की अनुमति के, यह
पेसा कानून की नई व्याख्या है। मैं चालीस वर्षों से आदिवासी इलाके में परिभ्रमण कर
रहा हूं, लेकिन मैं ने ऐसा कभी और कहीं नहीं पाया। आदिवासी
जनता चुनावों में शिरकत करती है, झारखंड में चार-चार आदिवासी
मुख्यमंत्री रहे हैं, आप इतिहास की धारा को मोड़ नहीं सकते।
हां, शोषण और विषमता के खिलाफ और जल, जंगल,
जमीन को बचाने के लिए संघर्ष व आंदोलन तो कर सकते हैं, लेकिन उसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह आंदोलन सिर्फ मुंडा
आदिवासियों का आंदोलन न रहे, पूरे आदिवासी समाज व बंचित जमात
का आंदोलन हो और वह पूरी तरह शांतिमय हो।
(विनोद कुमार लेखक, पत्रकार और
सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वर्तमान में वे रांची में रहते हैं।)